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( १५५ ) अन्तस्तल तक अवगाहन करके उसके यथार्थ स्वरूप को भली भांति अवगत कर लिया हो और यह भी सच हो कि उनका प्रौढ़ प्रतिवाद एक गम्भीर विचारक के हृदय में भी कुछ समय के लिये क्षोभ पैदा करदे परन्तु हमारे विचार में उनका प्रतिवाद-खंडन-अनेकान्तवाद के यथार्थ स्वरूप के अनुरूप तो नहीं है और उनमें कई एक विद्वान तो ऐसे भी हैं कि जिनको जैन मत का कुछ भी ज्ञान प्रतीत नहीं होता।
उदाहरण के लिये प्रथम विज्ञान भिक्षु को लीजिये विज्ञान भिक्षु के विज्ञानामृत भाष्य का कुछ नमूना हम पाठकों को भेदाभेद की प्रामाणिकता के उपलक्ष में दिखा आये हैं। अब ब्रह्मसूत्र २।२।३३ के भाष्य में आपने जो कुछ जैन दर्शन के विषय में लिखा है उसको पाठक देखें
[अपरेतु वाह्या दिगम्बरा एकस्मिन्नेव पदार्थे भावाभावी मन्यन्ते तन्मतं निराक्रियते, वेदान्तो. क्तस्य सत्कार्यवादस्य ब्रह्मकारणतोपयोगिनः सिद्धयर्थम्तत्रैवं ते कल्पयन्ति सामान्यतः सदसतो द्वावेवपदार्थो । आकाशादयो धर्मिणः एकत्वादयश्वधर्माः अनयोरेव विशेषः। तत्रसर्वेष्वेव पदा. थेष सप्तभंगी न्यायेन सदसत्व मनिर्वचनीयत्वं चास्ति तद्यथा सर्ववस्त्वव्यवस्थितमेव । स्यादस्ति स्थानास्ति, स्यादवक्तव्यः स्यानास्तिवा वक्तव्यः स्यादस्तिवा नास्तिवा स्यादस्तिवावक्तव्यः स्या
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