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को तो हम भी मानते हैं । इस कथन से सिद्ध हुआ कि यदि प्रकार भेद से- अपेक्षाकृत भेद से-एक वस्तु में दो विरोधी धमों का अंगीकार जैन दर्शन को अभिमत हो तो इसमें कोई आपत्ति नहीं कोई दोष नहीं, परन्तु यह मत तो हमारा है । चलो फैसला हुआ ? आप ही का मत सही, हमको इसमें कोई आग्रह नहीं कि यह मत हमारा है या आपका । भले आपका हो या हमारा परन्तु है तो युक्तियुक्त ? बस जो सिद्धान्त अनुभव गम्य या युक्ति गम्य हो उसके स्वीकार करने में किसी को भी किसी प्रकार की आनाकानी नहीं होनी चाहिये । ऐसा हरिभद्र सूरि आदि जैन विद्वानों का भी कहना अथवा मानना है + विज्ञान भिक्षु के सिवाय कतिपय अन्य दार्शनिक विद्वानों को भी जैन मत के विषय में कहीं कहीं पर विपरीत सा ज्ञान हुआ देखा जाता है (१) परन्तु इतने पर से यह नहीं कहा जा सकता कि उनको जैन दर्शन का
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पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु,
युक्तिमद्वचनं यस्य तस्यकार्यः परिग्रहः ।
( ? ) - क अनन्तावयवोजीवस्तस्य त एवावयवा अल्पे शरीरे संकुचेयु महति च विकसेयुरिति [ शंकराचार्य २/२/३४ का शां० भा०]
(ख) जीवस्तिकाय विघा वो मुक्तो नित्य सिद्ध श्वेति । पुद्गलास्तिकायः षोढा-पृथिव्यादीनिचत्वारि भूतानि स्थावरं जंगमंचेति [वाचस्पतिमिश्र भामतिं ] |
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