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________________ लेखक का वक्तव्य दर्शन और अनेकान्तवाद नामका यह प्रस्तुत निबन्ध मध्यस्थ वादमाला के तीसरे पुष्प के रूप में पाठकों की सेवा में उपस्थित किया जाता है । इस के पहले 'स्वामि दयानन्द और जैनधर्म' तथा पुराण और जैनधर्म, नाम के दो निबन्ध पाठकों की सेवा में पहुँच चुके हैं। प्रस्तुत निबंध के लिखने का हमारा जो उद्देश है उसको हमने निबन्ध में हो [ प्रान्त भाग में व्यक्त कर दिया है । अनेकांतवाद अथवा अपेक्षावाद का सिद्धान्त कुछ नवीन अथच कल्पित सिद्धान्त नहीं, किन्तु अति प्राचीन [ ऐतहासिक दृष्टि से ] तथा पदार्थों की उनके स्वरूप के अनुरूप यथार्थ व्यवस्था करने वाला सर्वानुभव सिद्ध सुव्यवस्थित और सुनिश्चित सिद्धांत है । तात्विक विषयों की समस्या में उपस्थित होने वाली कठिनाइयों को दूर करने के लिये अपेक्षावाद के समान उसकी कोटी का दूसरा कोई सिद्धान्त नहीं है। विरुद्धता में विविधता का भान कराकर उसका सुचारु रूप से समन्वय करने में अनेकान्तवाद-अपेक्षावाद का सिद्धान्त बड़ा ही प्रवीण एवं सिद्धहस्त है। __ जहां तक मालूम होता है जैन दर्शन ने इसी अभिप्राय से अपेक्षावाद को अपने यहाँ सब से अप्रणीय स्थान दिया और उसी के आधार पर अपने सम्पूर्ण तत्वज्ञान के विशाल भव्यभवन का निर्माण किया । परन्तु इसके विपरीत यह भी सत्य है कि जैन दर्शन की भांति ( शब्दरूप से नहीं किन्तु अर्थ रूप से) अन्य दर्शनों में भी उसे ( अपेक्षावाद को) आदरणीय स्थान मिला है। और कहीं पर तो जैन दर्शन के समान शब्द रूप से भी वह अपेक्षावाद-सम्मानित हुआ है [ इसके लिये देखो प्रस्तुत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002141
Book TitleDarshan aur Anekantavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Sharma
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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