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( १४५) जैन दर्शन का भी इस विषय में प्रायः ऐसा ही सिद्धान्त है x इसके अतिरिक्त इसी विषय पर प्रथम लेख की अपेक्षा कुछ अधिक प्रकाश डालने वाला एक और लेख भी महाभारत में देखा जाता है। जो लोग क्षेत्रज्ञ और सत्व [आत्मा और प्रकृति] के वास्तविक भेद वा अभेद, एकत्व अथच नानात्व को एकान्ततया वास्तविक या प्रातीतिक ही मानते हैं उनका मत महाभारत के कर्ता को अभीष्ट नहीं है। उसके विचार में आत्मा और प्रकृति में एकान्त रूप से भेद अथवा अभेद का स्वीकार करने वाले दोनों ही अविवेकी हैं । आत्मा में स्वाभाविक रूप से कर्तृत्व
x(क) नित्यानित्ये तथा देहाद्, भिन्नाभिन्ने च तत्वतः । घटन्त आत्मनि न्याया हिंसादी न्यविरोधतः ।
(हरिभद्र सरि कृत अटक) (ख) मौनीन्द्रे च प्रवचने युज्यते सर्व मेव हि, . नित्यानित्ये स्फुटं देहात् भिन्नाभिन्ने तथात्मनि ॥३८॥
(उ० यशोविजय कृत अध्यात्मसार पृ० १०३) तथा देहात कथंचिद्भिन्नः चैतन्य रूप पृथक् सत्ता पेक्षया व्यतिरिक्तः मृतक शरीरे दृष्ट विभागवाव तथा, कथं चिदभिन्नः क्षीर नीर वव वन्ययः पिंडच सकल शरीर व्यापित्वात सकचन्दनांगनादि कंटक खड्ग ज्वरादीष्टानिष्ट स्पर्शतः साता सातयोः शरीरेऽनुभूयमानत्त्वात ।
[टी० मु० गंभीर विजय ] (ग) प्रमाणाद् भिन्नाभिन्नम् ।१।१ ४२
[प्रमाण मीमांसायां हेमचन्द्राचार्याः ]
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