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( १४४ ) सिवाय महाभारत में कहीं कहीं पर ऐसा लेख भी है जिस पर से ग्रन्थकर्ता का ही प्रस्तुत विषय में स्वतन्त्रतया आशय प्रगट होता है । शिष्य प्रश्न के बादगुरु:-"यो विद्वान् सह संवासं विवासं चैव पश्यति।
तथैवैकत्व नानात्वेस दुःखात् परिमुच्यते ॥(?) अर्थात्-जो विद्वान् जड़ और चेतन के भेदाभेद को तथाएकत्व और नानात्व को देखता है वह दुःख से छूट जाता है । . इस श्लोक में चेतन और जड़ जीव और परमात्मा के भेदाभेद और एकत्व नानात्व का उल्लेख स्पष्ट है । चेतन जड़ का क्षीर नीर की भांति मिश्रण रूप अभेद सम्प्रज्ञात में और पृथक्त्व-भेद पदार्थ दर्शन में तथा जीव का ब्रह्म के साथ अभेद परमार्थ दशा में और भिन्नता व्यवहार दृष्टि में ऐसा टीकाकार का कथन हैx इस प्रकार भेदाभेद और एकत्व नानात्व को देखना ही मानो दुःख की निवृत्ति का उपाय है ऐसा इस श्लोक का अभिप्राय है इससे भेदाभेद और एकत्व नानात्व दोनों ही चेतन और जड़ में अपेक्षा कृत भेद से विद्यमान हैं ऐसा स्फुटतया प्रमाणित हुआ।
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(१) आश्वमेधिक पर्व [अनुगीता] अध्याय ३५ श्लो० १७ । x सह संवासं चिंज्जड़योरेक लोलीभाव संप्रज्ञाते, विवासं तयोः । पृथक्त्वं शुद्धत्व पदार्थ दर्शने । एकत्वं ईश्वरादभेदं तथैव । "नानावं तयोभिनवं व्यवहारे" [इति नीयकण्ठाचार्यः ]
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