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( १४३ ) इसके समाधानार्थ यही कहना होगा कि माया की अपेक्षा वह सगुण और शरीरी, और केवल स्वरूप की अपेक्षा से उसे निर्गुण अथच अशरीरी कहते हैं । इसलिये अपेक्षा भेद से वह शरीरी भी है सगुण भी है निर्गुण और अशरीरी भी कहा जा सकता है। . इसी प्रकार उसके नित्यानित्य स्वरूप की भी अपेक्षाकृत भेद से उपपत्ति हो सकती है । मायिक स्वरूप की अपेक्षा वह अनित्य और शुद्ध स्वरूप की अपेक्षा नित्य है इस भांति उसके नित्यानित्य शरीर विषयिणी विरुद्ध उक्ति का समाधान भी सुकर है। __ इस सारी विवेचना से यह प्रमाणित हुआ कि ब्रह्म का स्वरूप भी अनेकान्त है सर्वथा एकान्त नहीं "अनेकरूप रूपीय विष्णवे प्रभ विष्णवे (विष्णु सहस्र नाम )।
[ महाभारत में अनेकान्तवाद ] जैन धर्म के सिद्धान्त रूप अनेकान्तवाद-सप्तभंगी नयवादका महाभारत में कई स्थानों में उल्लेख किया है परन्तु वह कथन अनेकान्तवाद के समर्थन में उपयुक्त नहीं किया जा सकता वह तो स्वीकृत सिद्धान्त का अनुवादमात्र समझा जा सकता है इसलिये प्रस्तुत विषय में वह उपयोगी नहीं हो सकता, परन्तु इसके
(x) देखो महाभारत शांति पर्व अध्याय २३८ श्लोक ६
एतदेवं च नैवं च नचोभे नानभेतथा । कर्मस्था विषयं ब्रयुः सत्वस्थाः समदर्शिनः ॥
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