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( १३८ ) सत्व रजतम गुणमय है, तब कुछ लोग यह कहते हैं कि परमेश्वर का अव्यक्त और श्रेष्ट रूप भी उसी प्रकार सगुण माना जावे । अपनी माया से क्यों न हो परन्तु जब वही अव्यक्त परमेश्वर व्यक्त-सृष्टि निर्माण करता है [गी. ९।८] और सब लोगों के हृदय में रहकर उनके सारे व्यवहार करता है [१८।६१] .....
तब तो यही बात सिद्ध होती है कि वह अव्यक्त अर्थात् इन्द्रियों को अगोचर भले ही हो तथापि वह दया, कर्तृत्वादि गुणों से युक्त अर्थात् सगुण अवश्य ही होगा। परन्तु इसके विरुद्ध भगवान् ऐसा भी कहते हैं कि 'नमांकमाणि लिंपन्ति, मुझे कर्मों का अर्थात् गुणों का कभी स्पर्श नहीं होता [४।१४] प्रकृति के गुणों से मोहित होकर मूर्ख लोग आत्मा ही को कर्ता मानते हैं [ १२७।१४।१९ ] अथवा यह अव्यय और अकर्ता परमेश्वर ही प्राणियों के हृदय में जीवरूप से निवास करता है [ १३३१ ] और इसीलिये यद्यपि वह प्राणियों के कर्तृत्व
और कर्म से वस्तुतः अलिप्त है तथापि अज्ञान में फंसे हुए लोग मोहित हो जाया करते हैं [५।१४।१५] इस प्रकार अव्यक्त अर्थात् इन्द्रियों को अगोचर परमेश्वर के रूप-सगुण और निर्गुण-दो तरह ही के नहीं हैं प्रत्युत इसके अतिरिक्त कहीं कहीं इन दोनों रूपों को एक मिलाकर भी अव्यक्त परमेश्वर का वर्णन किया गया है। उदाहरणार्थ- "भूतभत् नचभूतस्थो"।९।५] मैं भूतों का आधार होकर भी उनमें नहीं हूँ, " परमात्मा न तो सत् है और न असत् "x [ १३।१२]
x अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्ना सदुच्यते ।
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