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( १३७ ) शाश्वत धर्म का और अनन्त सुख का मूल स्थान हूँ [गी०१४।२७] इससे विदित होगा कि गीता में आदि से अन्त तक अधिकांश में परमात्मा के व्यक्त स्वरूप का ही वर्णन किया गया है।
इतने ही से केवल भक्ति के अभिलाषी कुछ पंडितों और टीकाकारों ने यह मत प्रगट किया है कि गीता में परमात्मा का व्यक्तरूप ही अन्तिम साध्य माना गया है । परन्तु यह मत सच नहीं कहा जा सकता, x क्योंकि उक्त वर्णन के साथ ही भगवान ने स्पष्ट रूप से कह दिया है कि मेरा व्यक्त स्वरूप मायिक है और उसके परे जो अव्यक्त रूप अर्थात् इन्द्रियों को अगोचर है वही मेरा सच्चा स्वरूप है।.......
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.इतनी बात यद्यपि स्पष्ट हो चुकी कि परमेश्वर का श्रेष्ट स्वरूप व्यक्त नहीं अव्यक्त है तथापि थोड़ा सा यह विचार होना भी आवश्यक है कि परमात्मा का यह श्रेष्ट अव्यक्त स्वरूप सगुण है या निर्गुण । जब कि सगुण अव्यक्त का हमारे सामने यह एक उदाहरण है कि सांख्य शास्त्र की प्रकृति अव्यक्त ( अर्थात् इन्द्रियों को अगोचर) होने पर भी सगुण अर्थात्
(x) पाठक ! देखें यह कथन एकान्त पक्षका कैसा स्पष्ट विरोधी है अर्थात् जो लोग परमात्मा को एकान्ततया सर्वथा व्यक्त रूप से ही मानते हुए उसके अव्यक्त स्वरूप का निषेध करते हैं वे एकान्ततया व्यक्तरूप के पक्षपाती होने से उनका पक्ष ठीक नहीं है यह उक्त कथन से दर्शाया है।
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