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( १३६ ) [ परमात्मा का व्यक्ताव्यक्त अथवा सगुणानिर्गुण स्वरूप ]
भगवद्गीता और उपनिषदें। प्रकृति और पुरुष के भी परे जो पुरुषोत्तम परमात्मा या परब्रह्म है उसका वर्णन करते समय भगवद्गीता में पहले उसके दो स्वरूप बतलाये गये हैं, यथा व्यक्त और अव्यक्त (आंखों से दिखने वाला और आँखों से न दिखने वाला) इसमें सन्देह नहीं कि व्यक्त स्वरूप अर्थात् इन्द्रियगोचर रूप सगुण ही होना चाहिये और अव्यक्त रूप यद्यपि इन्द्रियों को अगोचर है तो भी इतने ही से यह नहीं कहा जा सकता कि वह निर्गुण ही है क्योंकि यद्यपि वह हमारी आंखों से न देख पड़े तो भी उसमें सब प्रकार के गुण सूक्ष्म रूप से रह सकते हैं इसलिये अव्यक्त के भी तीन भेद किये हैं, जैसे सगुण, सगुण-निर्गुण और निर्गुण । यहाँ "गुण' शब्द में उन सब गुणों का समावेश किया गया है कि जिनका ज्ञान मनुष्य को केवल उसकी वाह्यन्द्रियों से ही नहीं होता किन्तु मन से भी होता है । परमेश्वर के मूर्तिमान अवतार भगवान श्रीकृष्ण स्वयं साक्षात् अर्जन के सामने खड़े होकर उपदेश कर रहे थे, इसलिये गीता में जगह जगह पर उन्होंने अपने विषय में प्रथम पुरुष का निर्देश इस प्रकार किया हैजैसे, " प्रकृति मेरा रूप है" [ ९८] “जीव मेरा अंश है" [१५१७) “सब भूतों का अन्तर्यामी आत्मा मैं हूँ" [१०।२०] संसार में जितनी श्रीमान् या विभूतिमान मूर्तियां हैं वे सब मेरे अंश से उत्पन्न हुई हैं [१०१४१] मुझ में मन लगाकर मेरा भक्त हो [९।३४ ]............. "मैं ही ब्रह्म का, अव्यय मोक्ष का,
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