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ब्रह्म के व्यक्ता व्यक्त स्वरूप का बोध कराने के निमित्त किया गया है और कहीं पर अव्यक्त स्वरूप में सगुण निर्गुण स्वरूप का भान कराने के लिये है, और कहीं पर केवल निर्गुण स्वरूप बोधनार्थ सत् और असत् से विलक्षणता का उल्लेख है। इसी आधार से उपनिषदों में तथा भगवद्गीता में अनेक जगह पर ब्रह्म को सद्रूप से असद्रूप से और सदसद्रूप से उल्लेख करके सत् और असत् उभय से विलक्षण भी बतलाया है। भगवद्गीता और उपनिषदों में आने वाले इस प्रकार के विरुद्ध वाक्यों का समन्वय बिना अपेक्षावाद का अवलम्बन किये कदापि नहीं हो सकता । अमुक वाक्य इस तात्पर्य को लेकर लिखा गया है, अमुक वाक्य, यहां पर इस अभिप्राय से विहित हुआ है, यह कथन परमात्मा के निर्गुण स्वरूप का बोध कराता है और इस कथन से उसकी सगुणता अभिप्रेत है इत्यादि रूप से जो विद्वान् विरोध का परिहार अथवा विरोधी वाक्यों की एक वाक्यता या समन्वय करते हैं यही अपेक्षावाद के सिद्धान्त का अर्थतः आलम्बन या अनुसरण है। हमारे ख्याल में जैन विद्वान उपाध्याय यशो विजय ने ठीक ही कहा है
"ब्रुवाणा भिन्न भिन्नार्थान् नय भेद व्यपेक्षया । प्रतिक्षिपेयुनों वेदाः स्याद्वादं सार्वतांत्रिकम् ।।
[नयोपनिषत् ] अर्थात् अपेक्षाकृत भेद को लेकर पदार्थ का भिन्न भिन्न रूप से प्रतिपादन करने वाले, वेद ( उपनिषद् आदि ) भी स्याद्वाद के प्रतिषेधक नहीं हैं।
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