________________
( १३४ )
"ना सदासी न्नो सदासीत्तदीनीं"
( ऋ० मं० १० सूत्र० १२१ मं० १) उस काल में सत् भी नहीं था और असत् भी न था अर्थात् जो नहीं वह उस वक्त नहीं था और जो है वह भी उस समय नहीं था। किंतु सदसत् रूप केवल ब्रह्म ही अवस्थित था ।
" नाम रूप रहितत्वेन " असत्" शब्द वाच्यं "सत् एवावस्थितं परमात्म तत्वम्"
[ तैत्तरीय ब्राह्मण २|१|९| १ ] तथा अन्यत्र सत् और असत् रूप का इस प्रकार वर्णन आता है ।
"एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति"
[ ऋ० मं० १ सू० १६४ मं० ४६ ] उस एक ही सत् का विद्वान लोग अनेक प्रकार से कथन करते हैं ।
ब्रह्म में सत्
"देवानां पूर्वे युगे असतः सद् जायत्" (ऋ० मं० १० सू०७२ मं० ७) देवताओं से भी प्रथम असत् - ( भव्यक्त ब्रह्म ) से सत् ( व्यक्त-संसार ) की उत्पत्ति हुई । इस कथन से और असत् दोनों शब्दों का विधान भी देखा जाता असत् का उसमें निषेध भी दृष्टिगोचर होता है यह कथन उपरा उपरी देखने से यद्यपि विरुद्ध सा प्रतीत होता है तथापि इसको उपपत्ति अपेक्षावाद के सिद्धान्तानुसार भली भांति हो सकती है । यह कथन साक्षेप है अपेक्षा कृत भेद को लेकर ही ब्रह्म में असत् और सत् शब्द का उल्लेख है । कहीं पर तो इन शब्दों का
है और सत्
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org