________________
sman
.....
.
..
( १३० ) साम्प्रदायिक व्यामोह के कारण, अनेकान्तवाद को अनिश्चयवाद वा संदेहवादके नामसे वर्णन करके उसके संस्थापकों का उपहास करना निस्संदेह एक जीता जागता अन्याय है । एवं अनेकान्तवाद, मात्र जैन दर्शन का ही सिद्धान्त नहीं [जैन दर्शन ने इसको अधिक रूप से अपनाया यह बात दूसरी है] किन्तु दर्शनान्तरों में भी इसे वस्तु व्यवस्था के लिये-कहीं स्पष्ट रूप से और कहीं। अस्पष्ट रूप से-आदरणीय स्थान अवश्य मिला है इत्यादि । तथा हमारा यह प्रयास अनेकान्तवाद प्रधान जैन दर्शन की प्रशंसा और एकान्तवादी दर्शनों की अवहेलना के लिये नहीं किन्तु वस्तु का आनुभविक स्वरूप अनेकान्त अथवा सापेक्ष है और इसी स्वरूप में उसकी सर्वत्र उपलब्धि होती है इसके प्रतिकूल, सर्वथा एकान्त अथवा निरपेक्ष स्वरूप से वस्तुस्वरूप का अंगीकार करना, (यह निर्णय)-वस्तु के वास्तविक स्वरूप से विरुद्ध और उसके वस्तुत्व का व्याघातक है । इस प्रकार सामान्य रूप से निरूपण किये जाने वाले, जैन दर्शन के अनेकान्तवाद सिद्धान्त को अन्यान्य दार्शनिक विद्वानों ने भी तत्वार्थ व्यवस्था के लिये शुद्ध वा विकृत स्वरूप, नाम अथवा नामान्तर से शब्द रूप में या अर्थ रूप में अवश्य स्वीकार किया है। अतः अनेकान्तवाद अथवा अपेक्षावाद-केवल जैन दर्शन का ही मुख्य सिद्धान्त नहीं है । दर्शनान्तरों का भी इस पर अधिकार है इतना तत्व सममा देने की खातिर ही हमारा यह अल्प प्रयास है ।
इसके सिवाय हमारी परिमार्जित धारणा तो यह है कि यथार्थ एकान्त और अनेकान्तवाद के सभी दर्शन पक्षपाती हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org