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( १२९ ) प्रमाणित करते हुये उसको (वस्तु को) नित्यानित्यादि स्वरूप में ही उपस्थित करते हैं।
[उपसंहार] प्रिय सभ्य पाठकगण ! जैनदर्शन का अनेकान्तवाद किस प्रकार का है तथा अनुभव, उसकी प्रामाणिकता को किस प्रकार से साबित कर रहा है, एवं भारतीय दर्शनशास्त्रों-दार्शनिक ग्रन्थोंमें उसको-अनेकान्तवाद को-कहां और किस रूप में स्थान दिया है इत्यादि बातों को हमने यथामति यथाशक्ति आपके सामने प्रस्तुत कर दिया है । प्रस्तुत विषय से सम्बन्ध रखने वाली जितनी प्रमाण सामग्री हमको दार्शनिक ग्रंथों में मिली उतनी का हमने उल्लेख कर दिया। इस विषय में हमारा विचार तो यही है कि जैन दर्शन का अनेकान्तवाद संदेहात्मक अथवा अनिश्चयात्मक नहीं किन्तु अनुभव के अनुसार यथार्थ रूप से वस्तु स्वरूप का निर्णय करने वाला एक सुनिश्चित सिद्धान्त है । जबकि अनुभव ही वस्तु में एकान्तत्व का निषेध करके उसमें अनेकान्तता का व्यवस्थापन कर रहा हो तब जैन दर्शन का इसमें क्या दोष ? अनुभव के विरुद्ध वस्तु स्वरूप का स्वीकार करना कभी उचित नहीं समझा जा सकता ४ । इसलिये किसी
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x अनुभव एवहि धर्मिणो धर्मादीनां भेदाभेदौ व्यवस्थापयति........ अनुभवानुसारिणोचयं न तमातवर्त्य स्वेच्छया धर्मानुभवान् व्यवस्थापयितु मशिमहे। [वाचस्पतिमिश्र]
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