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सकती । माया की ब्रह्म से अतिरिक्त कोई स्वतंत्र + सत्ता नहीं किन्तु ब्रह्म सत्ता में हो उसकी सत्ता है । अतः वह ब्रह्म का ही स्वरूप है इस दृष्टि से माया के साथ ब्रह्म का अभेद है - माया और ब्रह्म दोनों एक हैं । और वह माया परिणामि और विकारी जगत का कारण होने से स्वयं विकृति और परिणति से युक्त है तथा जड़ है और ब्रह्म अविकारी और चेतन स्वरूप होने से इससे (माया से) विलक्षण है और इसी के आश्रय से ब्रह्म में जगत् का कर्तृत्व है इससे ये दोनों परस्पर में विभिन्न हैं इस दृष्टि से इसका भेद है माया को ब्रह्म से यदि किसी प्रकार भी भिन्न न माना जाय तो माया की भांति ब्रह्म भी परिणामी अथच विकारी सिद्ध होगा तथा ब्रह्म की अपेक्षा विवर्त और माया की अपेक्षा परिणाम,
+ (क) नहि श्रात्मनोऽन्यत् अनात्मभूततद्
रूपे सर्वावस्थे ब्रह्मणैव भ्रात्मवती
( ख ) जड़म पंचस्यागन्तुक तया स्वतः सत्ता भावात् इत्यदि ।
( उपदेश सहस्री )
+ अचिन्त्य शक्तिर्मायैषा ब्रह्मवयव्याकृताभिधा ।
प्रविक्रिय ब्रह्मनिष्टश विकारं यात्यनेकधा ॥ (पंचदशी १३ )
है
अतो नाम
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इति ते तदात्मके उच्येते ।
( तै० उ० शां० भा० २ । ६ । २ )
परमेश्वराधीनात्वियमस्माभिः प्रागवस्था जगतोऽभ्युपगम्यते नस्वतंत्रा साचावश्यमभ्युपगंतव्या | अर्थवती हिसा नहि तया विना परमेश्वरस्य स्वष्टृत्वं सिध्यति शक्तिरहितस्य तस्य प्रवृत्यनुपपत्तेः । इस कथन से माया की स्वीकृति को शंकर स्वामी ने नितान्त आवश्यक बतलाया है | अतः वह पदार्थ ( ब्र० सू० भा० १।४ । ३)
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