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इस प्रकार विवर्त और परिणामवाद का अंगीकार X भी इनके पारस्परिक भेद का ही बोधक है तथा "अर्थवती हिसा" इत्यादि भाष्यगत लेख से उसमें किसी प्रकार से स्वतंत्रता का भी बोध होता है क्योंकि यदि "माया" न हो तो ब्रह्म, सृष्टि ही नहीं रच सकता “नहि तथा बिना परमेश्वरस्य स्रष्टृत्वं सिद्धयति" । शक्ति सामर्थ्य के बिना वह क्या कर सकेगा ( शक्ति रहितस्य तस्य प्रवृत्त्यनुपपत्तेः ) इससे सिद्ध हुआ कि ब्रह्म की आत्मभूत मायाशक्ति की भी कोई स्वतंत्र सत्ता किसी न किसी रूप में है अतः वह माया ब्रह्म से भिन्न भी है । इस प्रकार माया में भेद अथच अभेद दोनों ही प्रामाणिक रूप से उपलब्ध होते हैं और दोनों ही स्वीकृति के योग्य हैं । अब रही भेदाभेद के परस्पर विरोध की बात + सो इसका उत्तर तो
x अविद्यापेक्षया परिणामः चैतन्यापेक्षया विवर्त्तः ।
( बे० परि भा० प्र० परिच्छेद ) इसके सिवाय वेदान्त परिभाषा में ब्रह्म को जगत् का अधिष्ठान उपादान और माया को परिणामी उपादान बतला कर उनकी भिन्न २ लक्षणों द्वारा अनेकता विभिन्नता सिद्ध की है । + हमारे ख्याल में तो---
न्यायाव खलु विरोधो यः सविरोध इहोच्यते ।
यद्वदेकान्त भेदादौ तयोरेवाप्रसिद्धितः ॥
(हरिभद्रसूरि )
न्याय से जो विरोध उपलब्ध हो उसी को वस्तुतः विरोध कह सकते हैं जैसे कि धर्म धर्मी और गुणगुणी आदि को एकान्ततथा भिन्न अथवा अभिन्न मानने में है अर्थात् विरोध की उपस्थिति है । क्योंकि
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