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(. १२४ ) हो सके उसको अनिर्वचनीय कहते हैं । अर्थात् भावरूप से या अभावरूप से, भेदरूप से अथवा अभेदरूप से, इत्यादि प्रकारों में किसी प्रकार से भी जिसका वर्णन न किया जाय वह पदार्थ अनिर्वचनीय कहाता है। शंकर स्वामी माया अथवा प्रकृति को इसी रूप में देखते हैं।
" तत्वान्यत्वाभ्या मनिर्वचनीये । अर्थात् यह माया ब्रह्म से एकान्त भिन्न “ अन्य" नहीं है तात्पर्य कि स्वतंत्र कोई वस्तु नहीं है किन्तु एक प्रकार से यह ब्रह्म की ही आत्मभूत शक्ति है । तथा यह मायाशक्ति परिणामिनी अथच जड़ स्वरूपा है और ब्रह्म अपरिणामी और चेतन है इसलिये यह मायाशक्ति और ब्रह्म दोनों अभिन्न वा एक भी नहीं हो सकते । एवं भिन्नाभिन्न भी नहीं क्योंकि भेदाभेद का आपस में विरोध है इसलिये वह अनिर्वचनीय है । हमारे विचार में तो शंकर स्वामी के उक्त कथन का यही तात्पर्य प्रतीत होता है कि ब्रह्म की आत्मभूत इस मायाशक्ति को ब्रह्म से एकान्ततया भिन्न अथवा अभिन्न नहीं बतलाया जा सकता। इससे माया के एकान्त भेद
और एकान्त अभेद स्वरूप का निषेध होकर उसके अनेकान्त स्वरूप [कथंचित् भेदाभेद रूप] का ही बोध होता है । यदि उसके अनेकान्त स्वरूप का भी सर्वधा निषेध कर दिया जाय तब तो उसे किसी प्रकार से पदार्थ कहना अथवा मानना भी बड़ी भारी भूल है । तथा वह ब्रह्म की शक्ति भी सिद्ध नहीं हो ' x प्रकृतिस्तु साम्यावस्थापन-सत्वरजस्तमो गुणमयी अव्याकृत नाम रूमा पारमेश्वरी शक्तिः। (वेदान्त परिभाषा-प्रत्यक्ष परिच्छेद की टीका)
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