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"( आत्मा है भी, और नहीं भी " यह कथन विला किसी रुकावट के अपनी सिद्धि के लिये अपेक्षावाद का आह्वान कर रहा है ! तथा परम सत्य के विषय में - वह स्थिर भी नहीं और अस्थिर भी नहीं तथा नित्य भी नहीं और अनित्य भी नहींइत्यादि जो कुछ लिखा है वह भी निषेधरूप से अनेकान्त का ही समर्थक है । इन शब्दों का यही अर्थ युक्ति संगत है कि वहपरमतत्व - एकान्ततया स्थिर अथवा अस्थिर नहीं तथा एकान्तरूप से नित्य अथवा अनित्य नहीं । उक्त छे विकल्पों की एकान्तसत्ता का निषेध करना ही बुद्ध भगवान् को अभीष्ट है अन्यथा परमतत्त्व में पदार्थत्व हो कभी नहीं बन सकता । वस्तुतस्तु बौद्धों ने परमतत्व का जो स्वरूप बतलाया है वह वेदान्तियों के अनिर्वचनीय शब्द के ही समान प्रतीत होता है । तब इसका यह सार निकला कि बौद्धदर्शन का तत्वविचार भी अपेक्षावाद के अवलम्बन बिना अपनी सिद्धि में अपूर्ण है । इसलिये उसने भी अपेक्षावाद को अपने घर में उचित स्थान दिया ।
}
[अनिर्वचनीय शब्द अनेकान्तवाद का पर्यायवाची है] १ शांकर वेदान्त में प्रपंचकारणीभूत माया के स्वरूप को अनिर्वचनीय बतलाया है । जिसका किसी प्रकार से निर्वचन न
(१) सर्वज्ञेश्वरस्यात्मभूत इवाविद्याकल्पिते नामरूपे तत्वान्यत्वाभ्यामनिर्वचनीये संसार प्रपंच बीजभूते सर्वज्ञेश्वरस्य मायाशक्ति: प्रकृतिरितिच श्रुति स्मृत्योरभिंलप्येते ।
( ब्रह्म सु० शां० भा० २ । १ । १४ )
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