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( ११८ ) कार्य कारण के विषय में विद्यारण्य लिखते हैं(२) "सघटोनो मृदो भिन्नो वियोगे सत्यनीक्षणात्"
"नाप्यभिन्नः पुरापिण्ड दशायामनवेक्षणात्॥३५ "अतोऽनिर्वचनीयोयं शक्ति वत्तेन शक्तिज। "अव्यक्तत्वे शक्ति रुक्ता व्यक्तत्वे घटनाम भृत्।३६
भावार्थ-घट मृत्तिका से भिन्न नहीं हैं भिन्न हो तो मृत्तिका के विना भी स्वतंत्र रूप से घट की उपलब्धि होनी चाहिये । तथा अभिन्न भी नहीं अभिन्न हो तो पिंड दशा में भी उसको उपलब्ध होना चाहिये अर्थात् मृत्तिका के पिंड में भी घट का प्रत्यक्ष होना चाहिये । इसलिये मृत्तिका से घट न तो सर्वथा भिन्न और न अभिन्न किन्तु अनिर्वचनीय है [ कथंचित्सापेक्षतया-भिन्नाभिन्न है ] अव्यक्त दशा में वह शक्ति रूप से अवस्थित है और व्यक्त दशा में घट नाम को धारण कर लेता है इत्यादि।
विद्यारण्य स्वामी यद्यपि अद्वैत मत के ही अनुयायी हैं उनका सिद्धान्त वही है जिसका स्थापन स्वामि शंकराचार्य ने किया है। परन्तु उनके उक्त कथन से कार्य कारण के भेदाभेद की एकान्तता का निषेध स्पष्ट प्रतीत होता है । वे, घट को मृत्तिका से एकान्ततया भिन्न अथवा अभिन्न न मानते हुए उसको अनिर्वचनीय बतलाते हैं परन्तु विचार दृष्टि से देखा जाय तो यह
(२) ब्रह्मनन्दे अद्वैतानन्द प्रकरणम् ।
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