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( ११७ ) (१) "शक्तिः शक्तात् पृथङ्नास्ति तद् दृष्टेर्नचाभिदा" "प्रतिबन्धस्य दृष्टत्वात् शक्तयाभावे तु कस्य सः” ११
भावार्थ - अग्न्यादि पदार्थ में जो दाहक - जलानेवालीशक्ति है वह अनि आदि से भिन्न नहीं, यदि भिन्न हो तो अग्नि से भिन्न रूप में उसकी उपलब्धि होनी चाहिये । तथा वह शक्ति सर्वथा अभिन्न भी नहीं क्योंकि प्रतिबन्धक के सद्भाव में उसका विलोप देखा जाता है । तात्पर्य कि अग्नि में रहने वाली दाहक शक्ति यदि सर्वथा अग्नि का ही स्वरूप हो तो मणि मंत्र औषधि के सन्निधान से अग्नि में दाहकत्व का जो अभाव देखा जाता है उसकी संगति नहीं हो सकती । अग्नि के मौजूद होने पर भी वहां दाह नहीं होता इससे प्रतीत हुआ कि शक्ति अग्नि से सर्वथा अभिन्न भी नहीं । किन्तु भिन्न अथच अभिन्न है यह अर्थात् सिद्ध हुआ । इसलिये शक्ति और शक्तिवाले का अपेक्षाकृत भेदाभेद ही प्रमाणित हुआ ।
(१) शक्ति रग्न्यादि निष्टा स्फोटादिजनिका, शक्तादग्न्यादिस्वरूपात् पृथङ्नास्ति कुत इत्यत आह-तद्वदिति । तद्वत्तथात्वस्य भेदेनासत्वस्य दृष्टेर्दशनात् अग्न्यादिस्वरूपातिरेकेणा नुपलभ्यमानत्वादित्यर्थः । नाप्यग्न्यादि स्वरूपमेव शक्तिरित्यत आह-नचेति । अभिदा अभेदोपि नच नैव तत्रापिहेतुमाह प्रतिबन्धस्येति मणिमंत्रादिभिः शक्ति कार्यस्य स्फोटादे: प्रतिबन्ध दर्शनात् स्वरूपातिरिक्ता शक्तिर्द्रष्टव्येत्यभिप्रायः । (इति टीकयां पृ० ४४ निर्णय सागर प्रेस बम्बई )
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