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( ११६ ) (३) अस्वतंत्रा हि माया स्याद प्रतीतेविना चितिम् ।
स्वतंत्रापि तथैवस्या दसंगस्यान्यथा कृतेः ॥१३२॥
(१) माया, तुच्छ, अनिर्वचनीय और वास्तवरूप से तीन प्रकार की है श्रुति से तुच्छ, युक्ति से अनिर्वचनीय और लौकिक व्यवहार से सत्य है।
(२) जिस प्रकार पट के प्रसारण और संकोच से तद्गत चित्रों का दर्शन और अदर्शन प्रतीत होता है उसी प्रकार इस जगत् के भी सत्वासत्व को यह माया दिखलाती है।
(३) यहमाया स्वतंत्र भी है और परतंत्र भी । अस्वतंत्र इसलिये कि चेतन के बिना इसकी प्रतीति नहीं होती और स्वतंत्र इस अपेक्षा से कि संग रहित चेतन को भी यह अन्यरूप में बदल देती है । इस कथन से माया में स्वतंत्रता और परतंत्रता ये दोनों ही धर्म अपेक्षा भेद से विद्यमान हैं यह तत्व साबित हुआ।
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भेदाभेद
शक्ति और शक्ति वाले के सम्बन्ध का जिकर करते हुए उनको परस्पर में भिन्नाभिन्न रूप से ही आपने स्वीकार किया है और कार्य कारण का भी भेदाभेद रूप से ही उल्लेख किया है तथाहि
* स्वाभासक चैतन्यं विहाय न प्रकाशते इत्यस्वतंत्रा, असंगस्यात्मनोऽन्यथा करणद स्वतंत्रापीत्यर्थः
[टीका]
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