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( १११ ) प्रश्न-तब अभेद और भेद प्रतिपादक श्रुतियों की क्या गति ?
उत्तर-मृतिका और घट गुण और गुणी की तरह कार्य-' कारण और विशेषण विशेष्य रूप से सदा व्याप्त रहना ही, प्रपंच और ब्रह्म का अनन्यत्व या अभेद है । जिस प्रकार मृत्तिका के बिना घट और नीलिमादि के बिना उत्पल-कमल की उपलब्धि नहीं होती उसी प्रकार ब्रह्म के बिना अपंच शक्ति की स्थिति और शक्ति के बिना ब्रह्म का भी कहीं पर ज्ञान नहीं होता। उष्णता के बिना अग्नि की जैसे कहीं पर उपलब्धि नहीं होती उसी तरह शक्ति के बिना ब्रह्म का भी भान असम्भव है जिसके बिना जिसका ज्ञान न हो वह उससे विशिष्ट होता है। इस लिये ब्रह्म को सर्वथा प्रपंचविशिष्ट होने से वह प्रपंच से अभिन्न है, और भेद तो स्वाभाविक है ही। अर्थात विशेषण विशेष्यगत स्वाभाविक गुणों की विभिन्नता से इनका-प्रपंच और ब्रह्म का-भेद तो सिद्ध ही है इत्यादि।
आचार्य प्रवर श्री कण्ठ के इस लेख से अनेकान्तवाद पर जो उज्ज्वल प्रकाश पड़ता है वह तो प्रत्यक्ष ही है परन्तु उन्होंने श्रुति, सूत्र और प्रमाण सिद्ध सापेक्षक भेदाभेद को न मान कर तत्सदृश विशिष्टाभेद को ही आदरणीय स्थान दिया, ऐसा द्राविड़ प्राणायाम क्यों ? क्या भेदाभेद में आप जो वस्तु विरोध बतलाते हैं वह आपके विशिष्टाद्वैत में नहीं ? विशिष्टाद्वैत भी तो भेदाभेद रूप ही है। कार्यकारण [प्रपंच ब्रह्म में विशिष्टतया अभेद और स्वभावरूप से भेद का अंगीकार करना, क्या भेदाभेद की स्वीकृति नहीं क्या यह भेदाभेद, उक्त भेदाभेद से [जिसमें कि आप वस्तु
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