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( ११० ) भावार्थ-प्रभ-"तदनन्यत्वं" इत्यादि सूत्र, अभेद का प्रतिपादन करता है और "अधिकंतु भेद निर्देशात्" सूत्र, भेद का विधान कर रहा है इससे सिद्ध हुआ कि सूत्रकारको ब्रह्म और प्रपंच का भेदाभेद ही अभिमत है [नकि अत्यन्त भेद अथच अभेद]
उत्तर-ऐसे न कहो हम भेदाभेद सदृश विशिष्टाद्वैत को सिद्ध करते हैं। हम ब्रह्म और प्रपंच का एकान्त भेद नहीं मानते, इनका आत्यन्तिक भेद मानने से घट पट की तरह ये भी अत्यन्त भिन्न सिद्ध होंगे तब तो अभेद का प्रतिपादन करने वाली श्रुति के साथ विरोध होगा। इस भय से यदि इनको एकान्ततया अभिन्न स्वीकार करें तब शुक्ति रजत की भांति, ब्रह्म और प्रपञ्च इन दो में से एक मिथ्या ठहरेगा। [तभी अभेद सिद्ध होगा] परन्तु ऐसा मानने पर ब्रह्म और प्रपञ्च का इनके स्वाभाविक गुणों को लेकर श्रुति ने जो भेद प्रतिपादन किया है उसकी उपपत्ति नहीं होगी अर्थात् भेद प्रतिपादक श्रुति से विरोध होगा। तथा भेदाभेद का भी अंगीकार नहीं कर सकते क्योंकि भेदाभेद आपस में विरोधी हैं । किन्तु शरीर और शरीरी (शरीर वाला) गुण और गुणी की तरह इनका [ब्रह्म प्रपञ्च का विशिष्टाद्वैतबिशिष्ट रूप से अभेद मानना ही युक्ति संगत है।
__x ब्रह्म में नित्यत्व, प्रपंच में प्रनित्यत्व, ब्रह्म में अविकृति, प्रपंच में विकार, ब्रह्म में चेतनत्व, प्रपंच में जड़ता, ब्रह्म में एकत्व और प्रपंच में अनेकता प्रादि स्वाभाविक गुणों की परस्पर भिन्नरूप से उपलब्धि होती है ।
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