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( १०८ ) अभिन्न मानकर उसमें [चिदचिद्विशिष्ट ब्रह्म में ] संकोच विकास अथवा कार्य कारणत्व रूप अवस्थाद्वय को स्वीकार, करना, फिर उक्त संकोच विकास अवस्था को, उसके शरीर भूत विशेषण स्वरूप-चिदचिद्वस्तु में ही बतलाना निस्संदेह विशिष्ट में एकत्व अभिन्नता-अथच अनेकत्व-भिन्नता को प्रमाणित करता है। यदि विशिष्ट सर्वथा एक अथवा अभिन्न है तो शरीरादिगत अथवा चिदचिद्वस्तु गत गुण दोषों का उसमें संचार क्यों नहीं? विशिष्ट को अभिन्न मानकर भी गुण दोषों को मात्र विशेषण में ही स्वीकार करना, बलात् सिद्ध करता है कि ये दोनों[विशेषण और विशेष्य-विशेषण-चिदचिद्वस्तु । विशेष्य-परब्रह्म ] कथंचित् भिन्ना भिन्न हैं । एकान्ततया भिन्न अथच अभिन्न नहीं। हमारे ख्याल में विशिष्टाद्वैत का यही तात्पर्य है कि समुदायरूप से चित् अचित् और ब्रह्म एक अथवा अभिन्न हैं और व्यक्ति रूप से ये सब अनेक अथच भिन्न हैं । श्री भाष्य के लेखों से भी ऐसा ही प्रतीत होता है अत: हमारे विचार में रामनुजाचार्य का विशिष्टाद्वैत भी अनेकान्तवाद का ही प्रतिरूप है।
[श्री कंठ शिवाचार्य का ब्रह्ममीमांसा भाष्य] __ श्री रामानुज की तरह, शिव विशिष्टा द्वैतमत के संस्थापक, श्री कंठशिवाचार्य ने भी ब्रह्मसूत्र पर "ब्रह्म मीमांसाभाष्यं" इस नाम का एक भाष्य लिखा है । श्री कंठाचार्य ने तो सीधे
और स्पष्ट शब्दों में विशिष्टाद्वैत को भेदाभेद का सादृश्य देते हुए अनेकान्तवाद की अनुमृति का असंदिग्ध रूप से परिचय
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