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उन्होंने भेदाभेद के सह अवस्थान का श्रीभाष्य में बड़े ही विस्तार से निराकरण किया है परन्तु उनके विशिष्टाद्वैत के सिद्धान्त का अब सूक्ष्म दृष्टि से निरीक्षण किया जाता है तब वह (विशिष्टाद्वैत) अनेकान्तवाद की छाया से ओत प्रोत ही प्रतीत होता है । रामानुज मत के अनुसार ब्रह्म निर्विशेष पदार्थ नहीं किन्तु चित् और अचित् इन दो विशेषणों से विशिष्ट है । चित्-जीव राशी- जीव समुदाय, अचित्-जड़ राशि- समस्त जड़ वर्ग- ये दो ब्रह्म के विशेषण और ब्रह्म इनका विशेष्य है तात्पर्य किं चित् अचित् ये दोनों ब्रह्म के शरीर और ब्रह्म शरीरी हैं । तब विशिष्टाद्वैत का यह अर्थ हुआ विशिष्ट चित् अचित् विशेषण वाला ब्रह्म एक अथवा अभिन्न है । विशेषण भूत चित्-जीवअचित् प्रकृति वस्तु, स्वरूप से पृथक होने पर भी समुदाय रूपविशिष्ट रूप से एक अथवा अभिन्न हैं यह तात्पर्य विशिष्टाद्वैत का निकला । इस दशा में स्वरूपापेक्षया अनेकत्व - भिन्नत्व और विशिष्टापेक्षया एकत्व - अभिन्नत्व को प्रतीति होने से ब्रह्म में अपेक्षाकृत एकत्वानेकत्व बलात् स्वीकृत हुआ । हमारे इस कथन की सत्यता को श्री भाष्य का निम्न लिखित पाठ कुछ और भी अधिक रूप से प्रमाणित करता है । यथा
एतदुक्तं भवति चिदचिद् वस्तु शरीरतया तदात्म भूतस्य ब्रह्मणः संकोच विकासात्मक कार्य कारण भावावस्था इयान्वयेपि नकश्चिद् विरोधः यतः संकोचविकासौ परब्रह्म शरीरभत चिदवि
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