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इत्यादि स्मृति शतादपि भेदाभेद विरोधोऽप्रामाणिक इति ।
भावार्थ-(शंका) भेदाभेद परस्पर विरोधी हैं अतः ये दोनों एक स्थान में नहीं रह सकते ।
(उत्तर)-अन्योन्याभाव रूप भेद का अविभाग रूप अभेद के साथ अविरोध होने से भेदाभेद की सह अवस्थिति में कोई आपत्ति नहीं। तथा विभागाविभाग रूप भेदाभेद में कालकृत अपेक्षाभेद, व्यवहार और परमार्थ कृत अपेक्षा भेद से कोई विरोध नहीं अर्थात् भिन्न २ समय की अपेक्षा व्यवहार और परमार्थ की अपेक्षा से भेदाभेद, एक स्थान में रह सकते हैं। जैसे भेद मुख्य है ऐसे अभेद भी मुख्य है। तथा सर्वसाक्षी परमात्मा भिन्नाभिन्न स्वरूप से ही सब जगह पर अवस्थित है इत्यादि सैकड़ों स्मृतिय भेदाभेद का बोधन करती हुई उनके विरोध को अप्रामाणिक बतला रही हैं।
हमारे ख्याल में विज्ञान भिक्षु के इस उक्त लेख पर किसी प्रकार के टीका टिप्पन की आवश्यकता नहीं, लेख सरल और स्पष्ट है । वे (विज्ञान भिक्षु) अपेक्षा कृत भेद दृष्टि से कार्य कारण और धर्म धर्मी आदि के भेदाभेद को मुक्त कंठ से स्वीकार कर रहे हैं और उसको भी बे केवल युक्ति संगत ही नहीं किंतु शास्त्र सम्मत भी बतला रहे हैं । अनेकान्तवाद का भी यही मंतव्य है वह भी तो अपेक्षाकृत भेद से ही भेदाभेद की एकत्र अवस्थिति मानता है केवल शब्दों का कुछ फेर है अर्थ में कुछ
(१) (पृष्ठ ३६३)
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