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________________ ( ९१ ) नहीं हो सकती फिर उत्पत्ति से पूर्व कार्य को सदसत् उभय रूप कहना या मानना किस प्रकार उचित समझना चाहिये ? इस शंका के समाधानार्थ कहत हैं "बुद्धिसिद्धं तु तदसत्" अर्थात् कार्य को सदसत् उभय रूप स्वीकार करना बुद्धि सिद्ध अनुभव सिद्ध है । जो बात अनुभव सिद्ध हो उसके मानने में कोई आपत्ति नहीं । उत्पत्ति से पूर्व कार्य जिस रूप से सत् है उसी रूप से यदि उसको असत् कहा जाय तब तो सत् असत् का एक स्थान में रहना न भी बन सके परन्तु हमारा मन्तव्य ऐसा नहीं है हम तो जिस रूप से कार्य को सत् कहते हैं उसी रूप से उसे असत् नहीं किन्तु रूपान्तर से असत् बतलाते हैं। उत्पत्ति से पूर्व कार्य, कारणरूप.से सत् और कार्यरूप से असत् है । क्या यह बात अनुभव सिद्ध नहीं ? क्या अनुभव सिद्ध का भी कभी अपलाप हो सकता है ? इसलिये उत्पत्ति से पूर्व कार्य को सत् एवं असत् उभयरूप मानने में कोई आपत्ति नहीं । कारण रूप से सत्व और कार्य रूप से असत्व एवं सत्वासत्व दोनों ही अपेक्षा भेद से उत्पत्ति से पूर्व कार्य में माने जा सकते हैं इसमें विरोध की कोई आशंका नहीं। इसके अतिरिक्त वेदान्त और वैशोषिक सूत्रों की वैदिक वृत्तियों में इस सिद्धान्त को और भी अधिक रूप से पुष्ट किया है 8 वैदिक मुनि जी का उक्त लेख अनेकान्तवाद का ... * (क)-नखल्वस्मामि रुत्पत्तेः प्राक् कार्य सर्वथा कारएवोऽन्यदनन्यद्वाऽभ्युपगम्यते येन तत्र भवदुत्प्रेक्षिता दोषाः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002141
Book TitleDarshan aur Anekantavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Sharma
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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