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सकते क्योंकि यदि सत् रूप ही मान लिया जाय तब तो उसकीकार्य की उत्पत्ति ही नहीं बन सकती। जो सत् है वह उत्पन्न कभी नहीं होता । उत्पत्ति विनाश से रहित होना ही सत् का लक्षण है परन्तु कार्य को हम उत्पन्न होता देखते हैं अतः वह सत् भी नहीं । तथा सदसत् उभय रूप भी कार्य को नहीं कह सकते क्योंकि सत् असत् दोनों आपस में विरोधी हैं जहां पर एक की स्थिति हो वहां पर दूसरा नहीं रह सकता । इसलिये उत्पत्ति से पूर्व कार्य सदसत् उभय रूप भी नहीं है । इस पूर्व पक्ष का अब समाधान करते हैं ।
(२) " उत्पादव्यय दर्शनात् " अर्थात् कार्य में उत्पत्ति और विनाश दोनों की उपलब्धि होती है इस लिये कार्य सत् और असत् उभय रूप है । यदि उत्पत्ति से पूर्व कार्य को सर्वथा असत् माना जाय तब तो उसकी उत्पत्ति ही कदापि नहीं हो सकती जो सर्वथा असत् है वह उत्पन्न कभी नहीं हो सकता और न उत्पन्न होता देखा गया । शशशृङ्ग सर्वथा असत् है अतः उसकी उत्पत्ति कभी नहीं होती । इसी प्रकार कार्य भी असत् रूप होने से कभी उत्पन्न नहीं होगा । एवं यदि उसको कार्य को - सर्वथा सत् ही मानें तो उसका विनाश कभी नहीं होगा जो उत्पत्ति से प्रथम सत् है वह बाद में भी सत् रूप ही रहेगा । परन्तु कार्य को तो हम देखते हैं कि वह उत्पन्न भी होता है और बिनष्ट भी इससे सिद्ध हुआ कि उत्पत्ति से पूर्व कार्य न तो सर्वथा सत् है न असत् किन्तु सदसत् उभय रूप है ।
(३) “विरोध परिहार " ऊपर कहा जा चुका है कि सत् असत् आपस में अत्यन्त विरोधी हैं इनकी एक स्थान में स्थिति
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