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( ८६ ) उक्त वृत्ति में "नै कस्मिन्न सम्भवात्" [२।२।३३] इस सूत्र को आगे रख कर आपने जैन दर्शन के अनेकान्तवाद की खूब ही खबर ली है । अनेकान्तवाद के खंडन में आप आचार्य प्रवर शंकर स्वामी से भी दो कदम आगे बढ़ गये हैं। आपका कथन है कि दो विरोधी धर्म एक स्थान पर किसी प्रकार से भी नहीं रह सकते । जो सत् है वह असत् कभी नहीं कहा जा सकता तथा जो असत् है उसे सत् नहीं कह सकते। एक ही वस्तु में सत्व और असत्व उभय को मानना निस्सन्देह अज्ञानता है। इसलिये यह सिद्धान्त किसी प्रकार भी विश्वास करने योग्य नहीं इत्यादि। परन्तु जैन दर्शन के अनेकान्तवाद का वास्तविक स्वरूप क्या है, वस्तु के स्वरूप को उसने किस प्रकार का माना है, परस्पर विरोधी धर्मों की सत्ता को वह एक वस्तु में किस रूप से मानता है और उसके इस मन्तव्य का अन्यान्य दार्शनिक विद्वानों ने किस सीमा तक प्रतिपादन और समर्थन किया है, इत्यादि बातों
का कुछ तो जिकर हम ऊपर कर आये हैं और कुछ प्रकाश इस . विषय पर आगे चलकर और भी डालेंगे। परन्तु वैदिक मुनिजी
भी उक्त सिद्धान्त के आगे किस प्रकार से नत मस्तक हुए हैं अर्थात् एक ही वस्तु को सदसत् उभय रूप से उन्होंने स्वयं किन जोरदार शब्दों में स्वीकार किया है उसका परिचय हम पाठकों को कराते हैं । आपका वह लेख इस प्रकार है- ननु कर्मणा यदिदं फलं निष्पद्यते तत्किं निपत्तः प्रागसद् वर्तते किं वाऽसदिति जिज्ञासायां पूर्व तावत् पूर्वपक्ष माह।
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