________________
इससे प्रतीत हुआ कि वात्स्यायन मुनि को परस्पर विरुद्ध धर्मों की एकत्रावास्थिति में वहां पर ही आपत्ति है जहां पर कि कोई प्रमाण-युक्ति न हो और जहाँ पर प्रमाण है वहाँ पर विरोधि धर्मों की एक स्थान में स्थिति मानने में उनको कोई दोष प्रतीत नहीं होता।
इसके सिवाय " समानप्रसवात्मिका जातिः " [२-२-६६] इस सूत्र के भाष्य में जाति · का लक्षण करते हुये आप लिखते हैं___ या समानां बुद्धिं प्रसूते भिन्नेष्वधिकरणेषु यया बहूनीतरतो न व्यावर्तन्ते योऽर्थोऽनेकत्र प्रत्ययानुवत्तिनिमित्तं तत्सामान्यम् । यच्च केषां चिदभेदं कुतश्चिद् भेदं करोति तत्सामान्य विशेषो जतिरिति ।
भावार्थ--"जाति केवल सामान्य रूप भी है और सामान्य विशेष उभय रूप भी है" द्रव्यों के आपस में भेद रहते हुये जो सामान बुद्धि को उत्पन्न करे इत्यादि लक्षणों वाली] वह केवल सामान्य जाति है और जो किन्ही का तो आपस में अभेद, और किसी के साथ भेद को साबित करे वह सामान्य विशेष उभयरूप जाति है।
एक ही जाति पदार्थ को, केवल सामान्य, और सामान्य अथच विशेष उभयरूप रूप स्वीकार करना अनेकान्तानुसरण नहीं तो और क्या है ?
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org