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रूप की अपेक्षा असत् एवं सदसत् उभयरूप रूप से ही पदार्थ का निर्वचन करना युक्ति युक्त है ऐसा जैन विद्वानों का कहना और मानना है ।
वस्तु के सदसत् स्वरूप विषय में जो विचार ऊपर प्रदर्शित किये गये हैं उनका कुछ उल्लेख अन्योन्याभाव के निरूपण में महर्षि कणाद और उनके अनुयायी अन्य विद्वानों ने भी किया है । तथाहि
(१) सच्चा सत् (२) यच्चान्यदसदतस्तदसत् ।
[ वै० द० अ० ६ ० १ सू० ४०५ ]
उपस्कार — प्रागभाव प्रध्वंसौ साधयित्वाऽऽन्योन्या भावं साधयितु माह सञ्चासदिति । यत्र सदेव' घटादि असदिति व्यवह्रियते तत्र तादात्म्याभाषः प्रतीयते । भवतिहि श्रसअश्वो गवात्मना असन् गौरश्वात्मना असन् पटो घटात्मना इत्यादिः । [ १० ३१३ ]
भाष्यम् - तदेवं रूपान्तरेणसदध्यन्येन रूपेणासद् भवतीत्युक्तम्" अश्वात्मना सन्नप्यश्वो न गवात्मनास्तीति ” [g ३१५ ]
ऊपर दिये गये सूत्रों का, शंकर मिश्र के उपस्कार और भाष्य को लेकर प्रकृतोपयोगी इतना ही तात्पर्य है कि घट अपने निजी स्वरूप से तो है और पढ़ रूप से नहीं । अश्व, अपने स्वरूप से सत् और गो रूप से असत् है तब इस कथन का अभिप्राय यही निकला कि घटादि पदार्थों में अपने स्वरूप की
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