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दो भेद करके परको "सत्ता" अपर को "सामान्य" के नाम से उल्लेख किया है । तथा सत्ता को तो उन्होंने केवल सामान्यरूप से ही स्वीकार किया है और अपर सामान्य को, सामान्य विशेष उभयरूप से माना है ।
[ द्रव्यत्वं गुणत्वं कर्मत्वं च सामान्यानि विशेषाश्च । ( वै. सु. अ. १ आ. २ सू. ५ )
प्रशस्तपादभाष्य - सामान्यं द्विविधं परमपरं चानुवृत्ति प्रत्ययकारणं तत्रपरं सत्ता महाविषयत्वात् साचानुवृत्तेरेव हेतुत्वात् सामान्यमेव । द्रव्यत्वाद्यपरमल्प विषयत्वात् तच्च व्यावृत्तेरपि हेतुत्वात् सामान्यं सद्विशेषाख्यामपि लभते ।
इस लेख से सिद्ध हुआ कि सामान्य, केवल सामान्य रूप ही नहीं किन्तु विशेष रूप भी है। द्रव्यत्व, गुणत्वादि रूप सामान्य में, सत्ता की अपेक्षा विशेषत्व और पृथिवीत्वादि की अपेक्षा से सामान्यत्व ये दोनों ही विभिन्न धर्म रहते हैं । इस बात को वैशेषिक दर्शन में और भी स्पष्ट कर दिया है ।
सामान्यं विशेष इति बुद्धयपेक्षम् ।
[अ० ६ ० २ ० ३ ] भाष्यम् - द्रव्यत्वं पृथिवीत्वापेक्षया सामाभ्यं सत्ता पेक्षायाच विशेष इति ।
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अर्थात् — द्रव्यत्व, पृथिवीत्व की अपेक्षा सामान्य और सत्ता की अपेक्षा से विशेष है । अतएव सामान्य विशेष उभय रूप है । उपस्कार के कर्त्ता शंकर मिश्र ने भी उपस्कार में
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