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अथवा मानी जा सकती हैं इस बात पर तथा एक वस्तु में परस्पर विरुद्ध धर्मों की स्थिति को स्वाभाविक और नियम सिद्ध बतलाने बाले अपेक्षावाद के सिद्धान्त पर जो प्रकाश पड़ता है उससे जैन दर्शन के अनेकान्तवाद का महत्व भली भांति विदित हो जाता है । इसी ख़याल से जैन विद्वानों ने अनेकान्तवाद को सर्व दर्शन सम्मत कहा है और प्रत्येक दर्शन में उसके बीज को माना है । *
[वैशेषिक दर्शन ]
अनेकान्तवाद का कुछ उल्लेख वैशेषिक दर्शन में भी पाया जाता है यह कथन ऊपर आचुका है कि जैन दर्शन किसी भी वस्तु को एकान्ततया सामान्य अथवा विशेषरूप से नहीं मानता किन्तु सामान्य विशेष उभयरूप से हो स्वीकार करता है इस सिद्धान्त को, महर्षि कणाद ने सर्वथा तो नहीं अपनाया परन्तु अपनाया अवश्य है । तथा किसी स्थान पर तो इसे पूर्णतया
स्वीकार किया है जैसे उन्होंने सामान्य और विशेष नाम के दो
स्वतंत्र पदार्थ माने हैं उनमें सामान्य के "पर" और "अपर" ऐसे
* सकल दर्शनसमूहात्मक स्याद्वाद समाश्रयण मतिरमणीम् ( हेमचन्द्राचार्य - सिद्धहेम व्याकरणे-सिद्धिः स्याद्वादादिति सूत्रे ) 'बाणभिन्नभिन्नार्थान्नयभेदव्यपेक्षया ।
प्रतिक्षिपेयुनोवेदाः स्याद्वादं सार्वतांत्रिकम् ॥
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नय उ० यशोवि० उ०
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