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स्वभाव धर्मों का एक स्थान में समावेश सुकर है । जैसे एक हो देवदत्त व्यक्ति में अपेक्षा भेद से पितृत्त्व और पुत्रत्व ये दोनों विरोधी धर्म सुगमतया रह सकते हैं - [ यज्ञदत्त की अपेक्षा उसमें पितृत्व और विष्णुदत्त की अपेक्षा पुत्रत्व है -] - तथा जैसे एकही घट पदार्थ में अवयवों की अपेक्षा अनेकत्व और अवयवी की अपेक्षा से एकत्व इन दो विरोधी धर्मों का समावेश देखा जाता है उसी प्रकार जाति व्यक्ति में भी अपेक्षा भेद से नित्यानित्यत्त्व आदि धर्मों की सत्ता मौजूद है। जाति भी व्यक्ति रूप से अनित्य और विनाशी कही जा सकती है एवं व्यक्ति भी जाति रूप से नित्य और अविनाशी मानी जा सकती है। इसी तरह कार्य भी कारण रूप से सत् और कारण, कार्य रूप से असत् कहा जा सकता है । इसमें अनिष्ट की कोई आशंका नहीं । इसके अतिरिक्त, जाति व्यक्ति आदि में अभेद की तरह भेद भी विद्यमान है तथा नित्यानित्य की भांति उसमें व्यापकत्व और अव्यापकत्व भी समझ लेना चाहिये । अर्थात् जैसे उसमें जाति व्यक्ति में अपेक्षा भेद से नित्यानित्यत्वादि धर्मों की स्थिति निर्धारित होती है उसी प्रकार जाति रूप से व्यक्ति भी व्यापक और व्यक्ति रूप से जाति भी व्याप्य है ।
महामति कुमारिल और पार्थसार मिश्र के लेखों से एक ही वस्तु नित्यानित्य, भिन्नाभिन्न, एक और अनेक किस प्रकार कही
x - अभेदेपि जाति व्यक्तयोर्भेदस्यापि विद्यमानत्वात् । नित्यानित्य त्यादिवद सर्वगतस्त्रा सर्वगतत्व मपिनानुपपन्नम्म्र ( शा० दी० पृ० ४०२ )
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