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( ७५ ) वति, त्रैलोक्यसंकर प्रसंगात् , जातिरप्येव मनित्य धर्मा स्यात् व्यक्तिरपि नित्यत्वादि धर्मा । नैषदोषः नानाकारं हि तद्वस्तु केनचिदाकारेण नित्यत्वादिकं केनचिच्चाऽनित्यत्वादिकं विभ्रन्न विरोत्स्यते। जातिरपि व्यक्तिरूपेणानित्या व्यक्तिरपि जात्यात्मना नित्येति नात्रकाचिदनिष्ठापत्तिः"]
[शा. दी. पृ. ३६ ] + शंका-जाति व्यक्ति को एक अथवा अभिन्न स्वीकार करना किसी प्रकार से भी उचित नहीं कहा जा सकता क्योंकि जाति, व्यक्ति आपस में सर्वथा विभिन्न स्वभाव रखने वाले पदार्थ हैं । जाति अनुगत-सामान्य-व्यापक स्वरूप, और व्यक्तिव्यावृित्ति-विशेष-व्याप्यरूप है । जाति नित्य है व्यक्ति, अनित्य, तथा जाति उत्पत्ति विनाश से रहित और व्यक्ति-उत्पत्ति विनाश वाली है अतः ये दोनों पदार्थ एक अथवा अभिन्न नहीं माने जा सकते । संसार में ऐसा कभी नहीं देखा गया कि एक ही वस्तु सामान्यरूप भी हो और विशेषरूप भी, नित्य भी हो और अनित्य भी तथा उत्पत्ति विनाश से रहित भी हो और उत्पत्ति
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(क) प्राकार भेदेनै कत्रापि विरुद्ध धर्म समावेशे नास्ति विरोधः । यथै कत्रैव देवदत्ते यज्ञदत्त निरूपित पितृत्वं विष्णुदत्त निरूपितं च पुत्रत्वं, यथा चैकत्रैवघटेऽवयवात्मनाऽनेकत्व मवयव्यात्मना चैकत्वं तथेत्यर्थः । यथाकार्यमपि कारणात्मना सद्भवति कारणमपि कार्यात्मनाऽसत्तथाऽत्रापिज्ञेयमि ति ( टीकायां सुदर्शनाचार्यः)
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