________________
( ७४ ) जिस प्रकार विरुद्ध स्वभाव रखने वाले ह्रस्वत्व दीर्घत्वादि धर्मों की, अपेक्षा भेद से अविरोधतया एक जगह पर स्थिति मानी जा सकती है । एवं प्रतीति बल से उनका एक स्थान पर रहना स्वीकार किया जाता है । उसी तरह अपेक्षा भेद से भेदाभेद की एकत्र स्थिति मानने में भी कोई आपत्ति नहीं है। क्योंकि प्रतीति की दोनों स्थानों में समानता है ।
[आक्षपान्तर का समाधान]
जाति व्यक्ति आदि पदार्थों को, भिन्नाभिन्न, एकानेक और नित्यानित्य मान कर अनेकान्तवाद का समर्थन करते हुए पार्थसार मिश्र ने एकान्तवादी लोगों के एक और गुरुतर आक्षेप का समाधान किया है । जिस लेख में उक्त विषय की चर्चा की है वह लेख अन्य लेखों की अपेक्षा, अनेकान्तवाद के सिद्धान्त पर कुछ और भी अधिक प्रकाश डालता है जाति व्यक्ति आदि पदार्थों को एकान्ततया भिन्न अथवा अभिन्न एक या अनेक, नित्य अथवा अनित्य ही मानने वाले अन्य दार्शनिक विद्वानों के द्वारा पदार्थों की अनेकान्तता पर किये गये आक्षेपों का उल्लेख और समाधान करते हुए मिश्र महोदय इस प्रकार लिखते हैं
[" नन्वनुवृत्ता नित्याऽनुत्पत्ति विनाशधर्मा. चजातिः, विपरीतस्वभावा च व्यक्तिः कथं तयोरक्यम् ? नोकमेववस्तु-अनुवृत्तं व्यावृत्तं नित्य मनित्य मुत्पत्ति विनाशधर्मक मतद्धर्मकं च संभ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org