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भेदाभेद की स्थिति निर्विवाद है। जहां पर गो-व्यक्ति विशेषरूप से जाति का निरूपण किया जाता है । [ "गारयं शाबलेयः” यह शबल - श्वेत चित्र - कर्बुरी - गाय है ] वहां पर तो जाति के साथ व्यक्ति का अभेद है और जहां पर व्यक्तयन्तर रूप से जाति का निरूपण हो [" योऽसौशाबलेयोगौः सवाहुलेयो न भवति" - यह शबल गाय कृष्ण नहीं हैं--] वहां पर शबल और बहुलश्वेत और कृष्ण का परस्पर में भेद होने से जाति का व्यक्ति से भेद है । इसलिये निरूपक भेद के कारण जाति व्यक्ति को भिन्नाभिन्न मानने में विरोध मूलक कोई भी आपत्ति नहीं । तद् व्यक्ति रूप से अभेद, और व्यक्तयन्तर रूप से भेद | अतः अपेक्षा भेद से, भेदाभेद उभय की एकत्र स्थिति निर्विवाद सिद्ध है ।
[धर्म धर्मी आदि का भेदाभेद ]
जाति व्यक्ति के भेदाभेद का उपपादन करने के अनन्तर पार्थसार मिश्र ने धर्म धर्मी के भेदाभेद का भी सप्रमाण उपपादन किया है । यथा
* धर्मिणो द्रव्यस्य रसादि धर्मान्तर रूपेण रूपादिभ्यो भेदो द्रव्यरूपेण चा भेदः । तथाऽवयविनः स्वरूपेणा वयवैर भेदोऽवयवान्तर रूपेण त्व
*यत्राहि मधुर मिदंद्रव्य मित्येवं द्रव्यस्य मधुरत्वेन रूपेण निरूपणं क्रियते तत्र रूपरसयोः परस्परं भेदान्मधुरत्वेन निरूप्यमाणस्य द्रव्यस्यापि
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