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शावलेय' इति यदा तुजातिपक्त्यन्तरात्मना निरूप्यते तदेयं व्यक्ति स्ततो भिन्नरूपाऽवसीयते योऽसौ बाहलेयोगौः सोयं शावलेयोनभवति ।
(पृष्ठ० ३६४) भावार्थ- अपेक्षा भेद से जाति व्यक्ति के भेदाभेद में कोई विरोध नहीं । यदि एक ही रूप से जाति व्यक्ति में भेदाभेद को स्वीकार करें तभी यहां विरोध की आशंका उपस्थित की जासकती है परन्तु वस्तुत: ऐसा नहीं है वास्तव में तो भेद किसी और रूप से है तथा अभेद किसी अन्य रूप से है । ह्रस्वत्व और दीर्घत्व ये दोनों ही धर्म आपस में विरोधी हैं परन्तु अपेक्षा भेद से ये दोनों जैसे एक स्थान में रहते हैं उसी प्रकार अपेक्षा भेद से भेदाभेद की भी एकत्र स्थिति हो सकती है। जैसे “यज्ञदत्त छोटा भी और बड़ा भी है" इस स्थल में देवदत्त की अपेक्षा यज्ञदत्त में ह्रस्वत्व-छोटापन-और विष्णुदत्त की अपेक्षा दीर्घत्व-बड़ापन-देखा जाता है अर्थात् एक ही यज्ञदत्त व्यक्ति में ह्रस्वत्व, दीर्घत्व ये दोनों धर्म जैसे अपेक्षा भेद से विद्यमान हैं ऐसे ही जाति व्यक्ति में भी अपेक्षा भेद से
भेंद एवात्रभासते । यथा यौऽसौशाबलेयोगौः सवाहुलेयो न भवति-पत्र गोपद वाच्य जातेः शावलेय व्यक्ति रूपेण निरूपणात् शावलेय वाहुलेय व्यक्त्योश्चपरस्परं भेदाज्जाति व्यक्त्योर्भेद एवावभासते इत्याह यदेति । तत्तः व्यक्त्यन्तर रूपेण निरूप्यमाण जातितः । एवंच जातिव्यक्त्योर्भेदाभेदो सप्रामाणकावेवेति भावः-[टीकाकारः]
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