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( ७० ) वाची हो जावेंगे । अर्थात् जिस प्रकार घट शब्द से कलश और कलश शब्द से घट का ग्रहण होता है उसी प्रकार जाति से व्यक्ति और व्यक्ति से जाति का बोध होना चाहिये परन्तु होता नहीं । इससे सिद्ध हुआ कि जाति व्यक्ति आदि का परस्पर में भेद और अभेद दोनों ही प्रतीतिसिद्ध अतएव प्रामाणिक हैं इनका परस्पर में कोई विरोध नहीं ।
[विरोध परिहार का दूसरा प्रकार ]
जाति व्यक्ति और कार्ण कार्य आदि के भेदाभेद की एकत्रावस्थिति में जो विरोध की आशंका की जाती है उसके निराकरण में पार्थसार मिश्र, एक और युक्ति देते हैं । आप कहते हैं
xअपेक्षाभेदाच, तथाहि गोरूपेण निरूप्य माणया जात्या व्यक्ति रभेदेन प्रतीयते "गौरयं
x भेदाभेदयोर्विरोधाभावे हेत्त्वन्तरमाह-अपेक्षाभेदादिति, निरूपक भेदादिति यावत् । यद्येकेनैव रूपेण भेदाभेदौस्यातां तदाविरोधः स्यादपि नैवमस्ति किंतु केनचिद्रूपेण भेदः केन चिदूपेणा भेद इति न विरोधः। यथा यज्ञदत्तस्य देवदत्तापेक्षया इस्वत्वेपि विष्णुदत्तापेक्षया दीर्घत्त्व मपीति पस्पर विरुद्धयोरपि ह्रस्वत्व दीर्घत्वयोरेकत्र यज्ञदत्ते, न विरोध स्तथाऽत्रापि दष्टव्यम्। उपपादयति तथाहीति । गोरूपेण तव्यक्ति रूपेण निरूप्यमाणा या जाति म्तयासहतद्व्यक्तेरभेदएव प्रत्तीयते यथा “अयंगौः शावलेयः" अत्र गोपद वाच्य जाति मुद्दिश्य शावलेयत्व विधानाद् योगौःस शावलेय इत्यभेद एवावभासते। व्यक्त्यन्तर रूपेण निरूप्यमाणातु या जाति स्तयासह व्यक्त
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