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________________ SNEY and RAMANTaawariya समझा जाय परन्तु ऐसा नहीं है । इसका तात्पर्य यह है कि जहां पर एक दूसरे का जो उपमर्दक हो-विनाशक हो-वहांपर ही उनका विरोध होता है [ जैसे प्रकाश, अन्धकार का विरोधी है ] यथा "इदरजतं नेदरजतं" इस स्थल में विरोध देखा जाता है। परन्तु भेदाभेद में ऐसा नहीं, भेदाभेद तो एक दूसरे की अनुकूलता को लिये हुए है अर्थात् भेदाभेद दोनों सहचारी है। विरोध तो इनका तब समझा जाय जबकि इनकी सहचारिता न हो जिनका परस्पर में सहचार देखा जाय उनको विरोधी कदापि नहीं कहा जा सकता भेदाभेद में कथन मात्र के लिये शाब्दिक विरोध भले ही प्रतीत होता हो मगर आर्थिक विरोध इनमें बिलकुल नहीं है। जाति ब्यक्ति के भेदाभेद विषय में एक उदाहरण लीजिये ? "इयंगौ" ( यह गौ है ) इस वाक्य से जो शाब्दबोध-ज्ञानउत्पन्न होता है उसके दो विषय हैं एक "बिशेष" और दूसरा "सामान्य" "इयं" से तो गोव्यक्ति विशेष का बोध होता है और "गौः" इससे गो सामान्य का भान होता है। इससे प्रतीत हुआ कि वस्तु-पदार्थ-सामान्य अथच विशेष उभय रूप है तब, "इयंगौ” यह जो सामानाधिकरण्य समानाश्रयत्व-रूप की प्रतीति है उससे तो जाति व्यक्ति के अभेद का बोध होता हैअन्यथा घट और पट की तरह जाति व्यक्ति का भी सामानाधिकरण्य नहीं बनेगा । और "इयं" तथा "गौः" इन दो शब्दों से क्रमशः गोव्यक्ति विशेष और गो सामान्य का जो भिन्न २ रूप से वोध होता है उससे जाति व्यक्ति का परस्पर भेद सिद्ध होता है। यदि दोनों को-जातिव्यक्ति को-सर्वथा अभिन्नही स्वीकार किया जाय तब तो घट कलश शब्द की भांति जाति व्यक्ति शब्द भी पर्याय . ". Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002141
Book TitleDarshan aur Anekantavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Sharma
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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