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प्रतीतिः । इयंगौरितिबुद्धिद्वयमपर्यायेण प्रति भासमान मेकं वस्तु द्वयात्मकं व्यवस्थापयति सामानाधिकरण्यं ह्यभेदमापादयति अपर्यायत्वंच भेदं श्रतः प्रतीति बलादविरोधः" ]
( शा० दी० पृष्ठ ३६३-६४ )
भावार्थ - (शंका) अवयव अवयवी, द्रव्यगुण और जाति व्यक्ति आदि को भिन्नाभिन्न उभयरूप मानना किसी प्रकार भी युक्ति युक्त नहीं क्योंकि भेद और अभेद दोनों परस्पर विरोधी हैं इन दोनों का एक स्थान में रहना असंभव है जहाँ पर भेद है वहाँ अभेद नहीं रह सकता एवं जिस स्थान में अभेद की स्थिति होगी वहां पर भेद नहीं ठहर सकता इसलिये द्रव्य गुण और जाति व्यक्ति आदि को परस्पर में या तो सर्वथा भिन्न ही मानना चाहिये या अभिन्न दोनों रूप में - भेदाभेद रूप मेंस्वीकार करना किसी प्रकार भी युक्त नहीं है । ( समाधान ) यह कथन ठीक नहीं है । जाति व्यक्ति आदि के भेदाभेद विषय में इस प्रकार का विचार रखना अनुचित है क्योंकि भेद और अभेद आपस में विरोधी नहीं हैं जिनका परस्पर में विरोध होता है वे ही एक स्थान में नहीं रह सकते परन्तु भेदाभेद दोनों एक स्थान में रहते हैं इसलिये ये आपस में विरोधी नहीं । जाति, व्यक्ति और कार्य कारण आदि में भेदाभेद का साथ २ रहना असंदिग्ध रूप से प्रतीत होता है । जैसे " इदंरजतं नेदंरजतं " | "यह चांदी है यह चांदी नहीं" इस वाक्य में पारस्परिक विरोध दिखाई देता है उसी प्रकार यदि भेदाभेद में हो तो इनको विरोधी
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