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[विरोध परिहार अथवा आक्षेप निराकरण ]
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यह बात ऊपर कई दफ़ा कही जा चुकी है कि जैन दर्शन किसी भी पदार्थ को एकान्ततया नित्य अथच अनित्य नहीं मानता किन्तु नित्यानित्य उभय रूप हो स्वीकार करता है तथा उसके मत में द्रव्य रूप से सभी पदार्थ नित्य और पर्याय रूप से अनित्य हैं इसी प्रकार द्रव्य पर्याय, धर्म धर्मी, गुणगुणी और कार्य कारण को एकान्ततया भिन्न अथवा अभिन्न न मान कर उनको भिन्नाभिन्न ही स्वीकार करता हैं इस बात को परिपूर्ण समझ कर ही जैन दर्शन में अनेकान्तवाद की पुष्टि की गई है परन्तु जो वस्तु नित्य अविनाशी है उसे अनित्य विनाश शील भी कहना और भिन्न हो उसे अभिन्न भी बतलाना तथा एक को अनेक भी कथन करना किस प्रकार युक्ति युक्त कहा जा सकता है । क्योंकि जो पदार्थ अविनाशी है वह विनाशी नहीं हो सकता तथा जो विनाश शील है उसे नित्य नहीं कह सकते एवं जो भिन्न है वह अभिन्न कैसे तथा जो एक है वह अनेक किस प्रकार ? नित्य, अनित्य का विरोधी है, भेद अभेद का प्रतिद्वन्दी और अनेक एक का शत्रु है । क्या एक ही पदार्थ को नित्य कहते हुए अनित्य कहना, भिन्न बतलाते हुये अभिन्न भी मानना एक प्रकार का उन्मत्त प्रलाप नहीं है ?
इसी प्रकार सत्, असत् और एकत्वानेकत्वादि के विषय भी यही न्याय समझना चाहिये अर्थात् जो सत् है वह असत् नहीं हो सकता तथा जो एक है वह अनेक नहीं कहा जा सकता । यदि ऐसा ही माना जाय तब तो शीत को उष्ण और उष्ण को शीत भी कह और मान सकते हैं! इसलिये, वस्तु नित्य भी है
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