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और अनित्य भी, भिन्न भी है और अभिन्न भी तथा एक भी है और अनेक भी इत्यादि प्रकार का उन्मत्त प्रलाप निस्सन्देह विस्मयोत्पादक है ! इसी विचार को लेकर जैन दर्शन के प्रतिद्वन्दी शंकराचार्य प्रभृति दार्शनिक विद्वानों ने अनेकान्तवाद को उचितानुचित शब्दों में कोसा है ! और उसकी कड़ी से कड़ी आलोचना की है । किसी ने इसको ( अनेकान्तवाद को ) उन्मत्त प्रलाप; किसी ने संशयवाद और किसी ने अनिश्चितवाद के नाम से उल्लेख करके इसके समर्थकों की भी खूब + खबर ली है।
परन्तु - प्राचीन तथा अर्वाचीन जैन विद्वानों ने भी अनेकान्तवाद पर होने वाले इन उक्त आक्षेपों का संयुक्त उत्तर देने में किसी प्रकार की कमी नहीं रक्खी और अनेकान्तवाद का स्वरूप तथा पदार्थों की अनेकान्तता को जैन दर्शन किस रूप में मानता है इत्यादि बातों को उन्होंने बड़ी शांति और प्रौढ़ता से समझाने की कोशिश भी की है तथा कड़ी आलोचना का उत्तर उन्होंने भी उसके अनुरूप शब्दों में ही दिया है तथापि उन सबका हम यहां
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* दूषये दज्ञ एवोच्चैः स्याद्वादं नतु पण्डितः । अज्ञप्रलापे सुज्ञानां न द्वेषः करुणैवहि ||
उपाध्याय यशोविजय अध्यात्मोपनिषत् ० २ श्लो ५४ एवं न्यायाविरुद्धेऽस्मिन् विरोधोद् भावनं नृणाम् | व्यवसनं वाजडत्वं वा प्रकाशयति केवलम् ॥ (शा० ० वा० स० स्त० ७ श्लो० ३४ हरिभद्रसूरि )
+ देखो - ब्रह्मसूत्र २-२-३१ पर शंकराचार्य प्रभृति विद्वानों के भाष्य
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