________________
( ६४ )
कोई व्यक्ति ही न हो तो यह उसका पुरुषका सिर और यह उसका पाद इस प्रकार का सर्वानुभव सिद्ध भेद व्यवहार ही कैसे होगा । इस व्यवहार को भ्रान्त कहना या मानना हमारे ख्याल में भ्रान्ति से भी बड़ी भ्रान्ति है । यह व्यवहार तो स्पष्ट रूप से अवयय अवयवी के भेद को साबित कर रहा है। इससे सिद्ध हुआ कि अवयव अवयवी अथवा कारण और कार्य का परस्पर में भेद अथच अभेद दोनों ही प्रामाणिक और अनुभव सिद्ध हैं ।
जाति व्यक्ति के सम्बन्ध में भी आपका वही विचार है जिसका जिकर ऊपर आचुका है अर्थात् जाति व्यक्ति का भी एकान्त भेद अथवा अभेद शास्त्र दीपिका कार को अभिमत नहीं, किंतु भेदाभेद ही सम्मत है ।
"तादात्म्यप्रतीतेर भेदोप्यस्तु पूर्वोक्त न्यायेन भेदोपि तस्मात् प्रमाण बलेन भिन्नाभिन्नत्व मेवयुक्तम्"
अर्थात् - जाति व्यक्ति की तादात्म्य स्वरूपतया प्रतीति होने से ये दोनों अभिन्न हैं और ऊपर दीगई युक्तियों द्वारा इनका परस्पर भेद भी अनुभव सिद्ध है इसलिये प्रमाण बल से भेदाभेद दोनों ही माननीय हैं।
(१) अनुपदमेव यत् भेद् प्रतिपादनं कृतं तेन । टीका ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
है
www.jainelibrary.org