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वात्मना प्रतीयन्ते । विद्यतेच देवदत्ते अस्यहस्तः शिरः इत्यादि कियानपि भेदावभासइत्युपपन्नमुभ. यात्मकत्वम्” ] x
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तात्पर्य - हमतो अवयवों से अवयवी अथवा कारण ( उपादानरूप ) से कार्य को न तो एकान्ततया भिन्न मानते हैं और न अभिन्न, किन्तु भिन्नाभिन्न उभयरूप से स्वीकार करते हैं अर्थात् अवयवरूप कारण से अवयवीरूप कार्य्य किसी अपेक्षा से भिन्न और किसी दृष्टिविन्दु से अभिन्न भी है । यदि कारण से कार्य को सर्वथा भिन्न ही मान लिया जाय तब तो तन्तुओं से पट और हस्तपादादि से पुरुष रूप अवयवी की भिन्नरूप से पृथ उपलब्धि होनी चाहिये परन्तु होती नहीं । इससे प्रतीत होता है. कि जो पट एवं मनुष्य के अवयव हैं वे ही अमुक सम्बन्ध द्वारा सम्मिलित हुए पट और मनुष्य के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं अतः सिद्ध हुआ कि कारण से कार्य एकान्त भिन्न नहीं । परन्तु इस ख्याल से इनको सर्वथा अभिन्न भी नहीं कह सकते यदि इनका एकान्त अभेद ही मान लिया जाय तो लोक में, यह कारण और यह इसका कार्य, तथा पुरुष के लिये यह इसका पाद और हस्त एवं यह इसका सिर इत्यादि जो व्यवहार देखा नाता है उसकी उपपत्ति कभी नहीं हो सकती क्योंकि हस्तपादादि अवयवों से अतिरिक्त स्वतंत्र रूप से पुरुष नाम की यदि
+ [ शास्त्रदीपिका पृ० ४१२ विद्या बिलास प्रेस काशी ] निष्कृष्ठः- पृथकृतः [ इति टीकाकारः ]
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