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( ६२ ) उच्च कोटि का संस्कृत भाषा का प्रन्थ लिखा है उसमें भी अनेकान्तवाद की चर्चा के कई स्थल हैं। पार्थसार मिश्र ने भी कुमारिल भट्ट की तरह बड़ी प्रौढ़ता से अनेकान्तवाद का प्रतिपादन-समर्थन किया है इतना ही नहीं बल्कि, विरोधियों के आक्षेपों का भी बड़ी उत्तमता से परिहार किया है । यथा
[अवयव,अवयवी अथवा कार्यकारणका भेदाभेद]
प्रथम अवयव, अवयवी अथवा कारण और कार्य को लीजिये ? अवयवों से अवयवी, एकान्ततया न तो भिन्न है और न अभिन्न किन्तु भिन्नाभिन्न उभय रूप है तात्पर्य कि जिस प्रकार इनका भेद अनुभव सिद्ध है उसी प्रकार अभेद भी युक्तियुक्त है। दो में से किसी एक का भी सर्वथा तिरस्कार नहीं किया जा सकता इसलिये भेदाभेद दोनों ही स्वीकृति के योग्य हैं। तभी पदार्थों की ठीक २ व्यवस्था हो सकती है। अतएव इनका अवयव अवयवी और कार्य कारण का एकान्ततया भेद और अभेद मानने वाले वैशेषिक तथा वेदान्त दर्शन के सिद्धान्त में जैन दर्शन की भाँति अपूर्णता का अनुभव करते हुये मीमांसक धुरीण पार्थसार मिश्र लिखते हैं
"वयंतु भिन्नाभिन्नत्वं | नहि तन्तुभ्यः शिरः पाण्यादिभ्योवा अवयवेभ्यो निष्कृष्टः पटो देवदत्तो वा प्रतीयते तन्तु पाण्यादयोऽवयवाएवपटा
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