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इसी प्रकार अपेक्षाभेद से वस्तु में भेदाभेद और एकत्वा नेकत्वादि सभी धर्म रह सकते हैं गोत्व जाति, स्वरूप से यद्यपि भिन्ननहीं तथापि श्वेत और कृष्ण गौ की अपेक्षा वह अवश्य भिन्न है। इसी तरह गो व्यक्ति गुण कर्म और जात्यन्तर की अपेक्षा, गोत्व रूप जाति से भिन्न होती हुई भी स्वरूप की अपेक्षा अभिन्न है, तथा व्यक्ति भी व्यक्यन्तर से स्वरूप की अपेक्षा भिन्न है, जाति की अपेक्षा से नहीं जाति की अपेक्षा से तो व्यक्तिव्यन्यन्तर से भी अभिन्न है। यह बात लोक में प्रत्यक्ष देखी जाती है कि विरोधी धर्म भी अपेक्षा भेद से एक स्थान में रह सकते हैं। एक ही पदार्थ किसी की अपेक्षा से हस्व और किसी की अपेक्षा से दीर्घ कहा या माना जाता है। और एक ही चैत्र दूसरे की अपेक्षा भिन्न होता हुआ भी स्वरूप से एक अथवा अभिन्न है ऐसे ही वस्तु, स्वकीयरूप से सदा एक होते हुए भी तत्तद्रूप को अपेक्षा अनेक कही या मानी जा सकती है इसमें विरोध की कोई आशंका नहीं।
महामति कुमारिल ने अनेकान्तवाद का किस रूप और किस सीमा तक समर्थन किया है इस पर अधिक अब कुछ भी कहना सुनना व्यर्थ है, विज्ञपाठक इसका स्वयं ही अन्दाजा लगा सकते हैं।
[ शास्त्र दीपिका ]
कुमारिल भट्ट के परवति विद्वान महामति पार्थसार मिश्र ने भी मीमांसा दर्शन पर "शास्त्र दीपिका" नाम का एक
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