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परिहर्तव्या भिन्नाभिन्नत्व कल्पना | केन चिद्धचात्मनैकत्वं नानात्वं चस्यि केनचित् ॥५॥
[पृ० ५६० ]
इन श्लोकों का संक्षेप में अभिप्राय यह है सर्व वस्तुओं का अनुवृत्ति, व्यावृत्ति - सामान्य विशेष रूप से ही भान होता है । इनके विना वस्तु का वस्तुत्व ही असिद्ध है । तथा सामान्य विशेष ये दोनों सापेक्ष हैं, दोनों ही एक दूसरे की अपेक्षा नित्य अथच अनित्य भिन्न और अभिन्न हैं एक की दूसरे के विना सिद्धि नहीं हो सकती । विशेष से शून्य सामान्य, और सामान्य विरहित विशेष, दोनों ही शशविषाण - ससले के सींग के तुल्य हैं । इनके विना वस्तु का वस्तुत्व भी वैसा ही है । इस लिये सामान्य विशेष आपस में अत्यन्त भिन्न नहीं है ॥ ११ ॥
(१) — यत्वन्यानन्यतैव कथमेकस्येत्युक्तं तत्राह एवमिति - एतदेव दर्शयति केन चिदिति गोसंहि शावखेयात्मना बाहुलेयाद्भियते स्वरूपेण च भिद्यते तथा व्यक्ति रपि गुण कर्म जात्यन्तरात्मनागोत्वाद् भिद्यते, स्वरूपेणा च न भिद्यते तथा व्यक्त्यन्तरादपि व्यक्तिः जात्यात्मनाच न भिद्यते स्वरू पेण च भिद्यते अपेक्षा भेदादविरोधः समाविशन्तिहि विरुद्वान्यपि अपेक्षा भेदात् । एकमपीह किंचिदपेक्ष्य स्वं किञ्चिदपेक्ष्य दीर्घं तथैकोपि चत्रो द्वित्वापेक्षया भिन्नपि स्वात्मापेक्षया न भिद्यते अनेनैकानेकत्वमपि परिहर्तव्यं तंवहि वस्तु स्वरूपेण सर्वत्र सर्वदा चैकमपिशाबलेयादि रूपेणानेकं भवतीति न विरोधः ।
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( व्याख्याकारः )
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