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________________ ( ५८ ) इस लिये वस्तु एक अथवा अनेक जिस रूप में प्रतीत हो उसको ( वस्तु को ) उसो रूप में अंगीकार करना चाहिये । वस्तु में एकत्व की स्थापना और किसी ने आकर नहीं की जिससे कि उसमें अनेकत्व का निषेध किया जावे किन्तु एकत्वानेकत्व की व्यवस्था, उसमें वस्तु में उपलभ्य मान एक और अनेक धर्मों की अपेक्षा स्वतः सिद्ध है, अतः वस्तु में एकत्त्व की तरह अनेकत्त्व भी प्रमाण सिद्ध है । इसी प्रकार अभाव प्रकरण में वस्तु को सदसत उभय रूप मान कर और भी सुन्दरता से अनेकान्तवाद का विधान उक्त ग्रन्थ में किया है । यथा ' THEY "स्वरूप' पर रूपाभ्यां नित्यं सदसदात्मके । वस्तुनि ज्ञायते कैश्चिद्र पंकिंचन कदाचन ॥ १२ ॥ [ पृ० ४७६ ] वस्तु, स्वरूप से सत् और पर रूप से असत् एवं स्वरूप पर रूप से सदसत् उभय रूप है । जैसे घट, स्वरूप से स्वरूप की अपेक्षा से सत् और पर-पटरूप से - पट की अपेक्षा से असत् है, Jain Education International ( १ ) - सर्वहि वस्तु स्वरूपतः सद्रूपं पररूपतश्चासद्रूपं यथा घटो घटरूपेणसन् घटरूपेणाऽसब्| पटोप्यसद्रूपेण भावान्तरे घटादौ समवेतः तस्मिन् स्वीयाऽसपाकारां बुद्धिं जनयति योऽयं घटः स पटो न भवति । ( व्याख्या) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002141
Book TitleDarshan aur Anekantavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Sharma
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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