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ततोन्यानन्यते तस्य स्तानस्तश्चेति कीर्त्यते । तस्माच्चित्रवदेवास्य मृषा स्यादेकरूपता ||७८ ||
वस्त्वनेकत्ववादाच्चx न संदिग्धा प्रमाणता । ज्ञानं संदिह्यते यत्र तत्र न स्यात् प्रमाणता ॥७॥ इहानैकान्तिकं वस्त्वित्येवं ज्ञानं सुनिश्चितम् ॥
भावार्थ - अवयवों से अवयवी अत्यन्त भिन्न नहीं किन्तु भिन्नाभिन्न है । कितने एक विद्वान अवयवों से अवयवी को एकान्तरूप से भिन्न मानते हैं और कई एक ने इनको सर्वथा अभिन्न सावित किया है । इन विद्वानों ने अपने पक्ष के समर्थन और पर पक्ष के खंडन में जिन २ युक्तियों का उल्लेख किया है उनसे आज तक यह निश्चित नहीं हो सका इनमें से एकान्ततया किसका पक्ष प्रबल और किसका दुर्बल है । भेदवाद की युक्तियें जिस तरह भेद वाद को पूर्णतया सिद्ध कर रही हैं उसी प्रकार अभेद वाद की युक्तियें अवयव अवयवी के अभेद का भी पूर्णरूप से समर्थन कर रही हैं। इससे मध्यस्थ भाव का आश्रयण करना ही उचित है। टीकाकार पार्थसार मिश्र के बचनों में इसका अभिप्राय यह है कि "जो लोग " अवयव, अवयवी को एकान्ततया भिन्न अथच अभिन्न मानते हैं वे ही लोग खुद अनेकान्तवाद को सिद्ध कर रहे हैं। क्योंकि भेद और अभेदवादी
x अनेकान्त वादादिति ३ पु० पाठः ।
श्लो०
० वा० बनवाद पृ० ६३२-३३ | ( तारायंत्रालय बनारस सिटी ) :
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