SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 99
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४ : जैनदर्शन में आत्म-विचार घट की तरह ही हो जाएगी। अतः यह मानना चाहिए कि ज्ञान का संवेदन आत्मा में ही होता है इसलिए आत्मा ज्ञान स्वरूप है। आत्मा ज्ञान रहित है इस प्रकार किसी को भी अनुभव नहीं होता है, इसके विपरीत 'मैं चेतन हूँ' इस प्रकार चैतन्य के अनुभव की तरह 'मैं ज्ञानस्वरूप हूँ' या 'मैं ज्ञाता हूँ ज्ञान का संवेदन आत्मा में होता है। इसलिए मानना चाहिए कि आत्मा चैतन्य स्वरूप की तरह ज्ञान स्वरूप भी है। । यदि ज्ञान को प्रकृति का परिणाम अर्थात् बुद्धि का धर्म माना जाए तो घटादि पदार्थ में भी बुद्धि की तरह ज्ञान होना चाहिए क्योंकि घटादि भी बुद्धि की तरह प्रकृति के परिणाम एवं अचेतन पदार्थ हैं, लेकिन घटादि पदार्थ ज्ञानवान् दृष्टिगोचर नहीं होते हैं । इसलिए सिद्ध है कि ज्ञान प्रधान (प्रकृति) का परिणाम नहीं बल्कि आत्मा का स्वरूप है । यदि प्रकृति के संसर्ग से आत्मा (पुरुष) को ज्ञानी माना जाएगा तो प्रकृति के संसर्ग से आत्मा के अन्य स्वाभाविक गुण चैतन्य, उदासीन आदि का भी होना मानना पड़ेगा जो सांख्यों को मान्य नहीं है। दूसरी बात यह है कि अन्य के ज्ञान से दूसरा ज्ञानी नहीं हो सकता है अन्यथा किसी के ज्ञान से कोई भी ज्ञानवान हो जाएगा। इसलिए प्रधान के संसर्ग से आत्मा ज्ञानी हो जाता है यह कथन ठीक नहीं है। सांख्य दार्शनिक आत्मा को अज्ञानी सिद्ध करते हुए कहते हैं कि आत्मा अज्ञानस्वरूप है क्योंकि आत्मा चैतन्य स्वभाव वाला है। यदि आत्मा ज्ञानस्वभाव वाला होता तो सुषुप्ति अवस्था में आत्मा को ज्ञान का अनुभव होना चाहिए, किन्तु उसका अनुभव नहीं होता है इसलिए सिद्ध है कि पुरुष ज्ञानस्वरूप न होकर अज्ञानस्वरूप है। १. चितै संज्ञाने। चेतनं चित्यते वानयेति चित् । सा चेत् स्वपरपरिच्छेदात्मिका नेष्यते तदा चिच्छक्तिरेव सा न स्यात्, घटवत् । -स्याद्वादमंजरी, १५ । २. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, २२८ । ३. अचेतनस्य न ज्ञानं प्रधानस्य प्रवर्तते । स्तम्भकुम्भादयो दृष्टा न क्वापि ज्ञानयोगिनः ।।-श्रावकाचार (अमितगति), ४।३७ । ४. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, २२९ । ५. प्रधानज्ञानतो ज्ञानी, वाच्यो ज्ञानशालिभिः । अन्यज्ञानेन न ह्यन्यो, ज्ञानी क्वापि विलोक्यते।। श्रावकाचार (अमितगति), ४।३२। ६. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, २३० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy